विनय मिश्र
जीवन चलता रहता है। यही शाश्वत सच है। निर्मल बने रहने के लिए चलना पड़ेगा। बहता पानी निर्मला...।

मुझे इतिहास की किताबें बहुत अच्छी लगती हैं। खासतौर पर उनके वे पात्र, जो देश व समाज की बनायी सीमाओं की बाधा को लांघकर लंबे सफर पर चलते रहे। अनजाने देश पहुंचे। वहां डेरा डाला। फिर एक नयी सुबह हुई, और नयी दिशा में चल पड़े।

महापंडित राहुल सांस्कृतायन की घुमक्कड़ी मुझे आकर्षित करती है। वे मेरे गांव के पास काफी दिनों तक रहे। यह भी मेरे लिए इतिहास की बात है। क्योंकि जब वे रहे, तो मैं इस दुनिया में नहीं था।

जब उनके बारे में जाना, तो उनसे ईर्ष्या होने लगी। कितना अच्छा होता, मैं भी घुमक्कड़ बन जाता। अपनी मर्जी से जहां मन करे, जाओ। जहां मन करे, रहो। ऊंचा आसमान, लंबी नदियां, बड़े पहाड़, घने जंगल। सबसे दोस्ती कर लो। खूब पढ़ो। खूब बतियाओ। बनारसी लहजे में जमकर जिओ रजा....।

राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि- "कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।" राहुल ने अपनी यात्रा के अनुभवों को आत्मसात् करते हुए ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ भी रचा। वे एक ऐसे घुमक्कड़ थे, जो सच्चे ज्ञान की तलाश में था और जब भी सच को दबाने की कोशिश की गई तो वह बागी हो गया।

प्राकृतिक आदिम मनुष्य महा घुमक्कड़ था। कहीं जमकर नहीं रहता था। आजकल वैज्ञानिक जीन (गुणसूत्र) जांचते हैं और कहते हैं कि फलाना के फलाना रिश्तेदार हैं। एक वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि अपने देश की आबादी का अधिकांश हिस्सा यूरोपीय और प्राचीन दक्षिण भारतीय (द्रविड़) लोगों की संतान हैं। अमेरिका की पत्रिका 'नेचर' में यह शोध प्रकाशित हुआ है। इस शोध के मुताबिक इस बात के ठोस प्रमाण हैं कि ज्यादातर भारतीयों के पूर्वज आनुवांशिक रूप में दो अलग अलग नस्लों के थे। इनमें से पहली नस्ल के लोग उत्तर भारतीयों के पूर्वज थे, जो आनुवाशिंक रूप से पश्चिम एशियाई, मध्य एशियाई और यूरोपीय लोगों के नजदीक हैं, जबकि दूसरी नस्ल के दक्षिण भारतीयों के पूर्वज उत्तर भारतीयों और पूर्वी एशियाई पूर्वजों से अलग थे।

यह इसलिए संभव हुआ होगा, क्योंकि उस समय घुमक्कड़ी जिंदाबाद रही।

हमारे यहां एक नेताजी हुआ करते थे। सांसद बने। विधायक बने। उनके किस्से मां सुनाती थी। समाजवादी आंदोलन की उपज थे। खद्दर पहनते थे। गांव-गांव जाकर संगठन मजबूत करते। मेरे नानाजी और वे दोस्त थे। महीने में कई बार वे अपने लगभग आधा दर्जन साथियों के साथ मेरे नाना के घर पहुंच जाते। गरीब घर। नानाजी ने कोलकाता की नौकरी छोड़कर गांव रहना पसंद किया था। खेती-बारी से जो आमदनी होती थी, उसी से परिवार खुश रहता। लेकिन नेताजी का आगमन दुखदायी होता। अचानक एक साथ छह-आठ लोगों का अतिरिक्त भोजन तैयार करना नानी के लिए कठिन कार्य होता था।

नेताजी आते ही पूछते भौजाई खाना है न ! तो नानी का जवाब रहता, नहीं है। फिर पूछते, सतुआ तो होगा ही...। वही दे दिजीए। और आंवले की चटनी के साथ सतुआ का आनंद उठाते। फिर अगले दिन दूसरे गांव चले जाते। पूरी जिंदगी वे घुमक्कड़ बने रहे। लेकिन यह तो था, कि जब इंदिरा गांधी की हत्या के बाद पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस की लहर चल रही थी, तब भी वे शान से जीते। नानाजी कहते हैं कि राजीव गांधी ने उस समाजवादी नेता को खोजकर उनसे मुलाकात की। मुझे लगता है कि घुमक्कड़ी ने नेताजी को लोगों का अपना बना दिया था। सभी समझते थे कि अरे वह तो अपने घर का है। मेरे यहां आता है। उसे वोट नहीं देंगे, तो किसे देंगे। वे चंद्रशेखर के साथी थे।

चंद्रशेखर की भारत पदयात्रा याद आती है। देश के कई मुश्किल सवालों का जवाब तलाशने के लिए चंद्रशेखर ने भारत पदयात्रा की थी। संपूर्ण क्रांति के नाम पर बनी पार्टी का नेतृत्व देने वाले लोगों का संपूर्ण क्रांति से कोई खास मतलब नहीं था। दूसरी आजादी के नाम पर लड़ी जाने वाली लड़ाई असफल रही थी। कई सवाल थे। उनके जवाब वे देश से पूछने निकल पड़े।

गांधी ने भी तो पूरे भारत को ट्रेन के थर्ड क्लास के डब्बों में सफर कर देखा था। समझा था।

घूमने के किस्से लगातार याद आते हैं। हालांकि मेरा चलना इनसे अलग है। एकदम अलग। मेरा सफर उतना महान नहीं। जितना पंडित राहुल का था। जितना समाजवादी नेताजी का था। जितना चंद्रशेखर का था। जितना गांधी का था।

मेरी सच्चाई दूसरी है। कैरियर व परिवार ने बांध लिया। राहुल जी जैसा घुमक्कड़ हो पाना कहां संभव है।

"अपनी मर्ज़ी से कहाँ अपने सफ़र के हम हैं,
रुख़ हवाओं का जिधर का है उधर के हम हैं।"

जब आप चाकरी कर रहे हों, तो सफर अपनी मर्जी का कैसे हो सकता है। हां, कई विकल्पों में अच्छा विकल्प आप जरूर खोज सकते हैं। वैसे ही एक अच्छे विकल्प को चुनकर हम सफर पर हैं।

मंदिरों के इस शहर में जब आया, तो अजीब सा परायापन था। लेकिन अब यह अपना हो गया है। जिंदगी में कहीं भी भुवनेश्वर का जिक्र आयेगा, तो लगेगा कि अरे मैं तो जानता हूं उसे। वह तो मेरा परिचित है। कोलकाता के बारे में जैसे लगता है। मेरा शहर।

उस मेरे शहर कोलकाता से अपने शहर की ओर का सफर जारी है। इस सोच के साथ कि

" चलते रहते हैं कि चलना है मुसाफ़िर का नसीब
सोचते रहते हैं कि किस राहगुज़र के हम हैं....।"


घुमक्कड़ी जिंदाबाद...।

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5 Responses
  1. Jandunia Says:

    जिंदगी को समझना मुश्किल है।


  2. चाहकर भी सबकुछ कर पाना संभव नहीं है .. पर कभी कभी शौक और कभी परिस्थितियों की लाचारी व्‍यक्ति को कहीं से कहीं ले जाती है .. आपने मनुष्‍य की घुमक्‍कडी प्रवृत्ति का अच्‍छा विश्‍लेषण किया है !!


  3. man khus kar diya bhaiya. bahoot accha.


  4. Anonymous Says:

    बहुत अच्छा है लगता है जिंदगी के मर्म को बहुत पास से जाना है। चित्र का चयन मन को झकझोरने वाला है। आगे पढ़ने की इच्छा होती है। आशा है आगे भी कुछ ऐसे अनछुए विषयों को पढने का मौका देंगे। धन्यवाद


  5. बहुत देर से मिले आप... बेहतरीन ब्लॉग.. कुछ दीनो का पुख़्ता इंतेज़ाम हो गया पढ़ने का :)