विनय मिश्र
वे सभी गरीब ग्रामीण थे। उनकी आंखों में मोतियाबिंद ने अंधेरा भर दिया था। आपरेशन का खर्च नहीं उठा सकते थे, इसलिए निशुल्क आपरेशन शिविर की खबर पाकर बलांगीर (ओडिशा का एक जिला) जा रहे थे। रास्ते में एक गैस टैंकर ने उनकी टाटा मैजिक को सामने से टक्कर मार दी। बलांगीर-सोनपुर मुख्य मार्ग पर हुई इस सड़क दुर्घटना में 11 वृद्धों की मौत हो गयी, जबकि सात घायलों की स्थिति गंभीर थी। उन्हें बुर्ला के वीएसएस अस्पताल में दाखिल कराया गया। सभी मृतक गरीब वृद्ध थे। रोशनी की तलाश में निकले, तो जीवन की ज्योति ही बुझ गयी।


यह सोमवार की खबर है। अखबार में काम करते-करते दिलोदिमाग घटनाओं-दुर्घटनाओं के अभ्यस्त हो जाते हैं। कंप्यूटर की स्क्रीन की तरह दिमाग पर खबरें मशीनी तौर पर दर्ज होती हैं और डिलिट हो जाती है। लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता। कार्यालयों में भयंकर कामकाजी दबाव के बीच भी हम मशीन नहीं हो सकते।

इस खबर ने दुखी कर दिया। दुर्घटनाएं हमेशा दुखद होती हैं। प्रियजनों से बिछोह करा देती हैं। लेकिन इस रिपोर्ट को पढ़ते-पढ़ते मुझे उन बेबस ग्रामीणों के चेहरे याद आ रहे थे। ठंड से बचने के लिए सस्ते गर्म कपड़ों में लिपटे पक्की दाढ़ी-मूंछ वाले वृद्ध। जो मोतियाबिंद जैसे सामान्य आपरेशन भी अपने खर्च पर नहीं करा सकते। वे इंतजार करते हैं किसी संस्था के निशुल्क आपरेशन शिविर का। और जब खबर मिलती है, तो चल पड़ते हैं झुंड में। यह सोचकर कि लौटेंगे, तो अपनों के धुंधले से हो गये चेहरे फिर देख सकेंगे। बचीखुची उम्र को सहेज सकेंगे। गरीबी से आजीवन चलने वाले संघर्ष के दौरान अपने पाले में रोशनी की थोड़ी सी पूंजी होगी।

लेकिन एक दुर्घटना ने जीवन की पूंजी ही लूट ली। धुंधली हो गयी जिंदगी में अंधेरा छा गया। पता नहीं दुर्घटना में किसका दोष था। मरने वालों का दोष यह था कि वे गरीब थे। और जिंदगी के अंतिम पड़ाव पर रोशनी के लिए संघर्ष करने निकले थे।

रात बीत रही है। इस रिपोर्ट को बनाते-बनाते 61 वां गणतंत्र दिवस आ गया।



राष्ट्रपति व प्रधानमंत्री जी की शुभकामनाएं टीवी स्क्रीन पर उभर रही हैं। तिरंगा लहरा रहा है।

लेकिन मैं सोच रहा हूं...

पता नहीं, मोतियाबिंद का आपरेशन कराने के लिए अपने देश के वृद्धों को कितने वर्षों तक निशुल्क शिविर लगने का इंतजार करना होगा।

पता नहीं कितने सौ वर्षों में लोग सड़कों पर पागलों की तरह वाहन दौड़ाने की अपनी आदत बदलेंगे।

पता नहीं कितने हजार वर्षों में यह गरीबी व लाचारी खत्म होगी।

पता नहीं ....



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विनय मिश्र

उस दिन एक परिचित संपादक जी से बात हो रही थी। उन्होंने अपने अखबार का ई-पेपर संस्करण देखने को कहा। कुछ विशेष था। और तभी अखबार के मुखपृष्ठ पर लहलहाते सरसों के खेत देखकर अपना बसंत याद आ गया।

आज भी गंगा के किनारे जाता हूं, तो विद्यापति याद आते हैं। बड़ सुख सार पावल तुअ तीरे, छोडिय़त नयन बहत बहु नीरे... बुदबुदाने लगता हूं। अनायास। वैसे ही बसंत की बात चलती है, तो मटर व सरसों के फूल याद आते हैं। हम साग के लिए भाई-बहनों के साथ भर दोपहरी घूमते रहते थे। उन खेतों में। झोला भरकर साग लाते और मां की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। अब भी छोटे बच्चों को वैसे ही साग बटोरते, उन्हीं खेतों में मटर के दाने चुगते देखता हूं। न खेत बदले हैं, न साग। मेरे गांव में तो नहीं बदला। थोड़ी हेरफेर हुई है। कुछ नजदीकी खेतों में घर बन गये हैं। कुछ जंगली इलाके खेत। पुराना बगीचा कटा, तो नई फुलवारी लग गयी।

चिंता जतायी जा रही है कि ग्लोबल वार्मिंग खतरनाक होती जा रही है। अभी ग्लेशियर के पिघलने को लेकर वैज्ञानिकों ने अपनी गलती मानी है। मन कहता है, दुनिया के खत्म होने की भविष्यवाणी करने वाले भी ऐसे ही एक दिन अपनी गलती मानेंगे।

मौसम बदल रहा है। हम बचपन से यही सीखते आये हैं कि मौसम ऐसे ही बदलता है। बदलना ही मौसम की नियति है। न बदले तो मौसम ही क्या। भाई लोग कहते हैं कि बसंत अब नहीं आता। आता तो है। बस देखने की जरूरत है। संपादक जी ने देखा, तो मुखपृष्ठ पर उस दिन सरसों का खेत लहरा कर छपा था। मजा आ गया।

बसंत आ गया।

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विनय मिश्र

बचपन में जब हम कलकत्ता से गांव जाते, तो बाबा-दादा और चाचा के उम्र के लोग ज्योति बाबू के बारे में पूछते थे। आजकल कुछ लोग बंगाल की चर्चा चलने पर ममता बनर्जी के बारे में पूछते हैं। बिहार के सुदूर गांव में उन दिनों अखबार एक दिन बाद पहुंचता था। न जाने कितने खंभे बिजली के आने के इंतजार में बूढ़े होकर परलोक सिधार गये। इसलिए टीवी तो अब भी नियमित नहीं चलती। साढ़े सात बजे आकाशवाणी केंद्र, पटना की बुलेटिन देश-दुनिया का हाल सुनाती थी। रेडियो सेट के इर्द-गिर्द बैठकी जमती, तो राजनीति पर खूब बात होती थी। जो बिहार के गांवों में रहे हैं, वे जानते हैं। वहां लोग राजनीति पर खूब बात करते हैं।

हम जाते, तो बंगाल की चर्चा होती और ज्योति बसु पर बात आकर ठहर जाती। लालू प्रसाद यादव व राबड़ी देवी के लंबे शासनकाल के पहले बिहार में एक साल, दो साल में सरकार व मुख्यमंत्री बदल जाना आम बात थी। और पड़ोस में एक आदमी लगातार मुख्यमंत्री बना रहा और बना रहा। मेरे गांव के लोग उसे चामत्कारिक व्यक्तित्व वाला व्यक्ति मानते थे। बाद में दादाजी रिटायर होकर गांव चले गये। ज्योति बसु भी रिटायर होकर इंदिरा भवन में सीमित हो गये। समय बदला। अब हम गांव जाते, तो दादाजी ज्योति बसु के स्वास्थ्य व उनकी सक्रियता को लेकर कई सवाल करते। पचास साल बंगाल में नौकरी करने के बाद शायद ज्योति बसु दादाजी के अपने हो गये थे। यह आत्मीयता थी। बंगाल व ज्योति बाबू दादाजी के अपने थे। हमेशा कांग्रेसी रहे दादाजी ने कभी ज्योति बसु की पार्टी को वोट नहीं दिया, लेकिन पूछते सिर्फ उन्हीं के बारे में थे। ऐसे ही लाखों लोग ज्योति बाबू के अपने थे।

बंगाल में दादा व दीदी के संबोधन के बीच वे बाबू थे। ज्योति बाबू...। पांच दशक से जानने वाले प्रणब मुखर्जी उन्हें ज्योति बाबू कहते हैं। और प्रणब दा की उंगली पकड़ कर राजनीति में आने वाली ममता बनर्जी भी। विलायत में पढ़ाई करने वाले एक धनी-मानी परिवार के बेटे ज्योति बसु बंगाल की राजनीतिक धारा के अलग ध्रुव रहे। कोई और नेता बाबू नहीं कहा गया।

ज्योति बाबू की शायद यही विशेषता रही कि वे औरों से अलग रहे। एकमात्र ऐसे कम्युनिस्ट नेता, जो प्रधानमंत्री की कुर्सी के एकदम नजदीक पहुंच गये थे। प्रधानमंत्री की कुर्सी व उनमें बस एक वोट की दूरी रही। और उस एक वोट को उन्होंने इतिहास का सबसे गलत वोट कहा। बाद में वोट देने वाले ने भी माना, वह ऐतिहासिक गलती थी। उनके लंदन में छुट्टियां बिताने की खूब आलोचना हुई। प्रिय सुभाष चक्रवर्ती को बढ़ावा देने को गैर कम्युनिस्ट आचरण माना गया। लेकिन उन्होंने कभी भी उसके लिए अफसोस नहीं जताया। इन दिनों ममता बनर्जी का इंदिरा भवन आना-जाना बढ़ गया था। यह वही ममता बनर्जी थीं, जिन्हें ज्योति बाबू की पुलिस ने घसीटकर राइटर्स बिल्डिंग से लालबाजार के लाकअप में पहुंचा दिया था। वह अविचल मुख्यमंत्री का निर्णय था। लेकिन वयोवृद्ध नेता के रूप में ज्योति बसु बंगाल के अभिभावक बन गये। वे ममता बनर्जी के लंबे अनशन को लेकर परेशान थे। परेशानी यह नहीं थी कि सिंगुर मुद्दे पर उनके अनशन से ज्योति बाबू के अपने वाममोर्चा की मुश्किल बढ़ रही है, बल्कि इस लिए कि ममता के स्वास्थ्य पर इसका बुरा असर पड़ेगा। कुछ महीने पूर्व सुभाष चक्रवर्ती की मृत्यु हुई, तो ज्योति बाबू ने कहा था कि जाना तो मुझे चाहिए, वो क्यों चला गया?

वे जाने को तैयार थे। चले गये। बाबू कहने वाले लाखों समर्थकों व लाखों विरोधियों को छोड़कर।

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विनय मिश्र
मैंने भी ब्लॉग बना लिया है। और उसे थोड़ा सुंदर बनाने के लिए दिन-रात मेहनत की। दिन-रात इस लिए की सब खुद करना था। ऑप्शन के बारे में जानकारी कम। जो करना था, सीख-समझ कर। सो खूब मेहनत की।

ब्लॉग बन कर तैयार हो गया, तो सोचा लिखा जाये। लिखने की तैयारी शुरू की। लेकिन जाड़े का मौसम शुरू हो गया। आलस व दैनिक काम के बोझ से दबा-सकुचाया रहा। अब उससे भी उबार पा लिया है।

सो लिखूंगा।

कुछ कविताएं।

कुछ यादें।


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