उस दिन एक परिचित संपादक जी से बात हो रही थी। उन्होंने अपने अखबार का ई-पेपर संस्करण देखने को कहा। कुछ विशेष था। और तभी अखबार के मुखपृष्ठ पर लहलहाते सरसों के खेत देखकर अपना बसंत याद आ गया।
आज भी गंगा के किनारे जाता हूं, तो विद्यापति याद आते हैं। बड़ सुख सार पावल तुअ तीरे, छोडिय़त नयन बहत बहु नीरे... बुदबुदाने लगता हूं। अनायास। वैसे ही बसंत की बात चलती है, तो मटर व सरसों के फूल याद आते हैं। हम साग के लिए भाई-बहनों के साथ भर दोपहरी घूमते रहते थे। उन खेतों में। झोला भरकर साग लाते और मां की खुशी का ठिकाना नहीं रहता। अब भी छोटे बच्चों को वैसे ही साग बटोरते, उन्हीं खेतों में मटर के दाने चुगते देखता हूं। न खेत बदले हैं, न साग। मेरे गांव में तो नहीं बदला। थोड़ी हेरफेर हुई है। कुछ नजदीकी खेतों में घर बन गये हैं। कुछ जंगली इलाके खेत। पुराना बगीचा कटा, तो नई फुलवारी लग गयी।
चिंता जतायी जा रही है कि ग्लोबल वार्मिंग खतरनाक होती जा रही है। अभी ग्लेशियर के पिघलने को लेकर वैज्ञानिकों ने अपनी गलती मानी है। मन कहता है, दुनिया के खत्म होने की भविष्यवाणी करने वाले भी ऐसे ही एक दिन अपनी गलती मानेंगे।
मौसम बदल रहा है। हम बचपन से यही सीखते आये हैं कि मौसम ऐसे ही बदलता है। बदलना ही मौसम की नियति है। न बदले तो मौसम ही क्या। भाई लोग कहते हैं कि बसंत अब नहीं आता। आता तो है। बस देखने की जरूरत है। संपादक जी ने देखा, तो मुखपृष्ठ पर उस दिन सरसों का खेत लहरा कर छपा था। मजा आ गया।
बसंत आ गया।
---
Realy nice post...
आपने हमें भी अपना गांव याद दिला दिया।
अच्छी तस्वीर खींची है आपने बसंत की। हर किसी के जीवन से ऐसे ही बसंत किसी न किसी तरह जुड़ा है।
आपने भी ब्लॉगिंग शुरू कर दी। बधाई हो। नियमित लिखें।
Welcome in blogging world
बसंत